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आदित्य हृदय स्तोत्रम

 

।। अथ आदित्य हृदय स्तोत्रम ।।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥ 01

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।

उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥ 02

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥ 03

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।

जयावहं जपेन्नित्यम् अक्षय्यं परमं शिवम्॥ 04

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।

चिन्ताशोकप्रशमनम् आयुर्वर्धनमुत्तमम्॥ 05

रश्मिमंतं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥ 06

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।

एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥ 07

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।

महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥ 08

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।

वायुर्वह्निः प्रजाप्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥ 09

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।

सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥ 10

हरिदश्वः सहस्रार्चि: सप्तसप्ति-मरीचिमान।

तिमिरोन्मन्थन: शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान॥ 11

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।

अग्निगर्भोsदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशान:॥ 12

व्योम नाथस्तमोभेदी ऋग्य जुस्सामपारगः।

धनवृष्टिरपाम मित्रो विंध्यवीथिप्लवंगम:॥ 13

आतपी मंडली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।

कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद्भव:॥ 14

नक्षत्रग्रहताराणा-मधिपो विश्वभावनः।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोस्तुते॥ 15

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रए नमः।

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥ 16

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाए नमो नमः।

नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥ 17

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।

नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः॥ 18

ब्रह्मेशानाच्युतेषाय सूर्यायादित्यवर्चसे।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥ 19

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषाम् पतये नमः॥ 20

तप्तचामिकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।

नमस्तमोsभिनिघ्नाये रुचये लोकसाक्षिणे॥ 21

नाशयत्येष वै भूतम तदेव सृजति प्रभुः।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥ 22

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।

एष एवाग्निहोत्रम् च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम॥ 23

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनाम फलमेव च।

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥ 24

एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।

कीर्तयन पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव॥ 25

पूज्यस्वैन-मेकाग्रे देवदेवम जगत्पतिम।

एतत त्रिगुणितम् जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥ 26

अस्मिन क्षणे महाबाहो रावणम् तवं वधिष्यसि।

एवमुक्त्वा तदाsगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥ 27

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोsभवत्तदा।

धारयामास सुप्रितो राघवः प्रयतात्मवान ॥ 28

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परम हर्षमवाप्तवान्।

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान॥ 29

रावणम प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत।

सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोsभवत्॥ 30

अथ रवि-रवद-न्निरिक्ष्य रामम। मुदितमनाः परमम् प्रहृष्यमाण:।

निशिचरपति-संक्षयम् विदित्वा सुरगण-मध्यगतो वचस्त्वरेति॥ 31

।। इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मिकीये आदिकाव्ये युद्दकाण्डे पञ्चाधिक शततम सर्गः ।।

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